◆ रूपेश उपाध्याय
संयुक्त कलेक्टर ग्वालियर
* आधार •• डॉ हरिहर निवास द्विवेदी कृत
" सीसोदिया - सामन्त रामसिंह "
इब्राहिम लोदी से हुई पराजय के बाद सन 1523 में अंतिम तोमर राजा विक्रमादित्य को ग्वालियर छोड़ना पड़ा। सन 1526 में पानीपत के युद्ध मे वह इब्राहिम लोदी के साथ मारा गया।
तब विक्रमादित्य के आगरा साथ गए सहयोगी उनकी विधवा पत्नी और पुत्र रामसिंह को आगरा से ले आये और उन्हें राजा कीर्ति सिंह के छोटे पुत्र धुरमंगद या मंगलदेव की जागीर अम्बाह के समीप ढोढरी में रखा गया।रामसिंह की उम्र इस समय 5-6 वर्ष की थी।
धुरमंगद के नेतृत्व में ग्वालियर गढ़ पर कब्जा करने का प्रयत्न किया गया किन्तु तातार खां की कुटिलता एव शेखू गुरान , रहिमदाद के साथ मुहम्मद गौस के षड्यंत्र के चलते ग्वालियर गढ़ बाबर के आधिपत्य में चला गया।
तब निराश होकर रामसिंह ने अफगानों का साथ दिया किन्तु सन 1543 ई में शेरशाह ने पूरनमल के साथ विश्वासघात किया।रायसेन दुर्ग में पांच हजार लोगों को मौत के घाट उतार कर कब्जा कर लिया।
इस प्रकार सब ओर से निराश होने पर रामसिंह ने मेवाड़ की शरण ली। राणा उदयसिंह ने अपनी एक राजकुमारी का विवाह रामसिंह के पुत्र शालिवाहन के साथ कर दिया था। उनके लिए वृत्ति बांध कर अपना सामन्त बना लिया था।
जब 1567 में अकबर ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया , चित्तोड़ की रक्षार्थ लड़ने बालों में ग्वालियर का तोमर राजा रामसिंह भी था। कर्नल टॉड के अनुसार " चित्तौड़ में जितने सामन्त वहां थे , वे सभी इस युद्ध मे मारे गए। सामंतो में बच सका था तो केबल एक - रामसिंह तोमर।"
राणा उदय सिंह की मृत्यु पश्चात महाराणा प्रताप को गद्दी पर बैठाने में भी उनकी अहम भूमिका थी। रामसिंह के अदम्य शौर्य का प्रदर्शन हल्दीघाटी में देखने को मिलता है।
मेवाड़ विजय की आकांक्षा लेकर मुगल सम्राट अकबर सम्पूर्ण शक्ति के साथ अजमेर आ धमका।
मेवाड़ अभियान में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह कछवाहा कर रहा था।
मुगल सेना बनाश नदी के किनारे आ गई । दूसरी ओर आरावली पर्वत माला की हल्दीघाटी के दूसरी ओर प्रताप की सेना थी।
महाराणा प्रताप की दक्षिणी ओर की सेना का नेतृत्व रामसिंह तोमर के पास था । उनके साथ तीनो पुत्र शालिवाहन , प्रतापसिंह , भवानी सिंह और दूसरे सैनिक थे। 18 जून को प्रातः रणवाद्य बज उठे। भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ। रामसिंह के प्रबल पराक्रम के सामने गाज़ी खां बदख्सी रणक्षेत्र से भागा।
मुगल सेना व मानसिंह के राजपूत सैनिक भी भाग खड़े हुए । तभी अकबर के रण क्षेत्र में आने की सूचना मिली।अब युद्ध का केंद्र रक्तताल बन गया। प्रताप की सेना में प्राण लेने और प्राण विसर्जन की बाज़ी लगी थी। दोनों ओर से हाथी युद्ध मे कूद पड़े।
अनेक योद्धा धराशाही होने लगे। अद्भुत शौर्य पराक्रम प्रदर्शित करते हुए विक्रमसुत रामसिंह तोमर तीनो पुत्र शालिवाहन, भवानीसिंह और प्रताप सिंह के साथ वीर गति को प्राप्त हुए।तोमर राजाओ ने मेवाड़ के राणाओं के प्रश्रय का मूल्य चुका दिया।
हल्दीघाटी के युद्ध मे रामसिंह तोमर के योगदान का मूल्यांकन राजपुताने के इतिहास लेखक नही कर सके। राणाप्रताप की चकाचौध में बे ग्वालियर के तोमर राजा और उसके बलिदान का आंकलन नही कर सके।
आज जहाँ मेवाड़ राणाप्रताप की गौरव गाथाओ से भरा हुआ है वहाँ ग्वालियर के राजा वलिदान ओझल है। हिन्दू इतिहासकार इतिहास लेखन में रामसिंह के बलिदान को यथोचित स्थान देने में विफल रहे हैं।
.....इस युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी मुल्ला बदायूँनी और समकालीन इतिहास लेखक अबुल फज़ल ही रामसिंह के शौर्य , पराक्रम के विषय मे पर्याप्त लिख गए । तभी हम आज उनके वलिदान का स्मरण कर पा रहे है। अन्यथा आज हम उनका स्मरण भी नही कर पाते।